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परम पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज के भीतर जन्म से ही संन्यास की एक सहज मांग थी जो समय के साथ तीव्र से तीव्रतम होती चली गई और अंततः वैदिक शिक्षा एवं संस्कृति में निष्णात होने के बाद वर्ष 1995 रामनवमी के दिन महाराज श्री ने संन्यास ले लिया । परम पूज्य महाराज श्री के तप, त्याग सेवा, समर्पण और पुरुषार्थ के 20 वर्षों के बाद उन्होंने अपने सदृश सन्यासियों को सन्यास के मार्ग पर अग्रसर किया। ऐसे भाई-बहन जिन्होंने स्वयं को महाराज श्री के संकल्पों के साथ एक एकाकार करते हुए, निष्ठा के साथ प्रबल पुरुषार्थ करते हुए जगत की सेवा में अपने जीवन को आहूत कर दिया।

"जग की सेवा खोज अपनी प्रीति उससे कीजिए जिंदगी का राज है यह जानकर जी लीजिए" इस भावना के साथ अपने विवेक और वैराग्य को बढ़ा रहे हैं और गुरु प्रदत्त अपने-अपने सेवा क्षेत्र के दायित्वों का पूरी प्रामाणिकता के साथ निर्वहन कर रहे हैं।

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संन्यास

आह्वान

परम पूज्य महाराज श्री का ऋषि चेतना के संवाहक

पतंजलि के संन्यासियों से अपेक्षा

संन्यासी का संकल्प

मैं ईश्वर की दिव्य संतान, ऋषि-ऋषिकाओं का वंशज एवं उनका आध्यात्मिक उत्तराधिकारी व प्रतिनिधि हूँ। भारत मेरी माँ है।

अमृतस्य पुत्राः । माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः । (वेद) ऋषीणां प्रतिरूपोऽहम्। तत्त्वमसि। अयमात्मा ब्रह्म । शिवोऽहम्। अहं ब्रह्मास्मि ॥

मैं अपने नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव सच्चिदानन्द स्वरूप में प्रतिष्ठित रहते हुए आचरण की दिव्यता को सदा अक्षुण्ण रखूँगा / रखूँगी।

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ।            वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्। ओं सर्वं

इन भावों या साधनों से अपनी साधना को साधते हुए अपने अस्तित्व को पूर्ण शुद्ध करके आत्मबोध प्राप्त करूँगा करुँगी।

* “पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता, मत्तः सर्वभूतेभ्योऽभयमस्तु स्वाहा "।

इस संन्यास संकल्प को सदा स्मरण रखते हुए सभी अविवेक पूर्ण कामनाओं एवं विषय भोगों से मुक्त रहकर 'संन्यासी होना दुनिया का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व व गौरव है' इस सत्य को सदा स्मरण रखूँगा/रखूँगी। क्योंकि मेरी एक छोटी सी भूल से मेरी करोड़ों वर्ष पुरानी गौरवशाली महान् ऋषि परम्परा व संन्यास परम्परा कलंकित हो जायेगी और इसकी कभी भी क्षतिपूर्ति नहीं हो पायेगी।

अतः मैं सदा जागरुक, गुरुनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ, ब्रह्मनिष्ठ रहकर संन्यास धर्म का प्रामाणिकता से पालन करूँगा/करूँगी।

योगर्षिस्वामिरामदेवनिर्दिष्टा संन्यासिजीवन-मर्यादा

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था, वसुन्धरा पुण्यवती च तेन ।
असारसंवित्सुखासागरेऽस्मिन् लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेतः ॥ (सकन्दपुराण, माहे. कौमार. ५५ / १४० )

अर्थात् जिनका अन्तःकरण परब्रह्म परमात्मा में लीन हो गया है, उसका कुल पवित्र हो जाता है. उसकी माता कृतार्थ हो जाती है और यह सम्पूर्ण वसुन्धरा (पृथ्वी) पुण्यों से भर जाती है।

भद्रमिच्छन्ति ऋषयः स्वर्विदस्तया दीक्षामुपनिषेदुरगे ।
ततो राष्ट्र बलमोजश्च जात तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ॥

अर्थ- हे विद्वानों! जो (ऋषयः) वेदार्थविद्या को प्राप्त (स्वर्विदाः) सुख को प्राप्त (अ) प्रथम (त) ब्रह्मचर्य आश्रम को पूर्णता से सेवन तथा यथावत् स्थिरता से प्राप्त होके ( भद्रम्) कल्याण की (इच्छन्ति:) इच्छा करते हुए, (दीक्षाम्) संन्यास की दीक्षा को (उपनिषेदुः) ब्रह्मचर्य ही से प्राप्त होते, उनका (देवा:) विद्वान लोग (उपसंनमन्तु) यथावत् सत्कार किया करें। (ततः) तदनन्तर (राष्ट्रम) राज्य (वलम्) बल (च) और (ओजः) पराक्रम (जातम्) उत्पन्न होवे, (तत्) उससे (अस्मै) इस संन्यासाश्रम के पालन के लिये यत्न किया करें।

दीक्षार्थिनां मनोभावाः

भद्रमिच्छन्ति ऋषयः स्वर्विदस्तया दीक्षामुपनिषेदुरगे । ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ॥

अर्थ- हे विद्वानों! जो (ऋषयः) वेदार्थविद्या को प्राप्त (स्वर्विदाः) सुख को प्राप्त (अ) प्रथम (त) ब्रह्मचर्य आश्रम को पूर्णता से सेवन तथा यथावत् स्थिरता से प्राप्त होके ( भद्रम्) कल्याण की (इच्छन्ति:) इच्छा करते हुए, (दीक्षाम्) संन्यास की दीक्षा को (उपनिषेदुः) ब्रह्मचर्य ही से प्राप्त होते, उनका (देवा:) विद्वान लोग (उपसंनमन्तु) यथावत् सत्कार किया करें। (ततः) तदनन्तर (राष्ट्रम) राज्य (वलम्) बल (च) और (ओजः) पराक्रम (जातम्) उत्पन्न होवे, (तत्) उससे (अस्मै) इस संन्यासाश्रम के पालन के लिये यत्न किया करें।